गुरुवार, दिसंबर 09, 2010

इसे मै क्या कहूँ ?



हम रास्ते में जिन्हें
पत्थर समझ कर छोड़ आये थे |
वह आज  मंदिरों में
भगवान बने बैठे है |


 अब कोई मेरे दुश्मन की
 आज तक़दीर तो देखे ,
वह मेरे घर का मालिक
और हम उसके दरवान बने बैठे |


बचपन में करबट बदलने पर
जो खोल देती थी आँखें अपनी ,
आज उसके कराहने पर भी
हम अपनी आँखें मूंदें बैठे |


और बचपन में जो हमारी
तोतली जुबान की सारी बाते जान लेती थी |
आज एक हम है जो उसकी 
 पोपली जुबान से  अनजान बने बैठे |





37 टिप्‍पणियां:

  1. आपने तो सुन्दर लिखा..बधाई.

    'पाखी की दुनिया' में भी आपका स्वागत है.

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  2. यह दुनिया बिडम्बनाओं की दुनिया है

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  3. कोई मेरे दुशम्न----
    और बचपम मे -----
    बहुत अच्छी पँक्तियाँ हैं जीवन के सच को दर्शाती। बधाई इस सुन्दर अभिव्यक्ति के लिये।

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  4. बहुत कुछ सोचने पर मजबुर करती है ये रचना। आपका धन्यवाद।

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  5. सुनील जी! पतानोन्मुख मूल्यों को उद्घाटित करती कविता!

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  6. और बचपन में जो हमारी
    तोतली जुबान की सारी बाते जान लेती थी |
    आज एक हम है जो उसकी
    पोपली जुबान से अनजान बने बैठे |

    यही है जीवन का कटु सत्य...बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति..आभार

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  7. मार्मिक किन्तु सत्य और क्या कहूँ

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  8. 4.5/10

    साधारण प्रस्तुति है
    रचना में आज का कटु-यथार्थ दिखता है.

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  9. और बचपन में जो हमारी
    तोतली जुबान की सारी बाते जान लेती थी |
    आज एक हम है जो उसकी
    पोपली जुबान से अनजान बने बैठे |
    Bahut Sunder ...... kmaal ki panktiyan hain....

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  10. और बचपन में जो हमारी
    तोतली जुबान की सारी बाते जान लेती थी |
    आज एक हम है जो उसकी
    पोपली जुबान से अनजान बने बैठे

    बहुत संवेदनशील रचना ..

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  11. बचपन में करबट बदलने पर
    जो खोल देती थी आँखें अपनी ,
    आज उसके कराहने पर भी
    हम अपनी आँखें मूंदें बैठे |
    xxxxxxxxxxxxx
    एकदम गहरे भाव लिए पंक्तियाँ ...शुक्रिया

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  12. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  13. समय का फेर होता हैँ । जालिम जमाने के क्या कहने। सुन्दर भावनात्मक प्रस्तुति ।

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  14. aapka blog mere gaanw ki yaad dilata hai.........
    bahut hi sunder kavita...

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  15. श्री कैलाश सी. शर्माजी से पूरी तरह सहमत...

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  16. नजराना पर मेरी नई पोस्ट "भ्रष्टाचार पर सशक्त प्रहार" पर आपके सार्थक विचारों की प्रतिक्षा है-
    www.najariya.blogspot.com

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  17. बचपन में करबट बदलने पर
    जो खोल देती थी आँखें अपनी
    आज उसके कराहने पर भी
    हम अपनी आँखें मूंदें बैठे

    वाह सुनील जी, वाह...

    बहुत ही भावमयी रचना लिखी है आपने..
    ...बहुत खूब।

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  18. Bada dard samete hue hai ye rachana...zindagee kee kadvi sachhayi!

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  19. दुखद। किन्तु कटु सत्य । शायद ऐसा ही होता है।

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  20. आपकी रचना ने झकझोर दिया कुछ कहने लायक नही छोडा…………आज का कटु सत्य्।

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  21. बचपन में करबट बदलने पर
    जो खोल देती थी आँखें अपनी ,
    आज उसके कराहने पर भी
    हम अपनी आँखें मूंदें बैठे |


    और बचपन में जो हमारी
    तोतली जुबान की सारी बाते जान लेती थी |
    आज एक हम है जो उसकी
    पोपली जुबान से अनजान बने बैठे |

    बहुत ही मर्मस्पर्शी प्रसंग को आपने शब्दों में उतारा है। समय की यह विडम्बना है कि हमको तभी जाकर उनकी भावनाओं की, कष्टों की अनुभूति होती है, जब हम भी जीवन के उस सोपान पर आसीन होते हैं।
    आपके पुत्रियों द्वारा बनाये चित्र बहुत सुन्दर हैं। दोनों चित्र दो विभिन्न भौगोलिक स्थितियों को एवम् जीवन-पद्धतियों को व्यक्त करने हैं। उनमें निहित सृजनशीलता को प्रो्त्साहित कीजिये।

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  22. वक्त वक्त की बात है ! सचमुच मां का कर्ज़ नहीं चुकाया जा सकता ! सुन्दर रचना ! मेरे ब्लोग पर भी आएं व फ़ोलो करें ! मैं आपको फ़ोलो किए देता हूं !

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  23. बहुत अच्‍छी रचना। जमाने की सच्‍चाई छिपी है,बस और कुछ नहीं कह सकता, क्‍योंकि मुझे वो पोपली जुबान नसीब ही नहीं हुई क्‍योंकि वो मुझे तोतली जुबान के दौर में ही दुनिया में अकेला छोड कर चली गई थी।

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  24. सुनील जी, इसी महीने हैदराबाद आने का कार्यक्रम बन रहा है। यद‍ि आया तो आपसे प्रत्‍यक्ष् मुलाकात करूंगा।

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  25. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  26. पहली बार आया हूं। बहुत अच्छी रचना।

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  27. Bahut hi goodh aur mananiiy post, baar-baar padhne ko mn karta hai..bahut aabhar is post ke liye..shabdon ka chyan jordar hai apne daayitwon ko kushalataa se nibha rahe hain. kathy to lagbhag sabhi achhe hote hai parantu jb shbd wahi baate sampreshit kare jo kavi ka bhaaw hai to kaavy saundarya khil uthtaa hai....wahi saundary aapke kaay ki sugandhi chaturdik bikher raha hai....

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